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Sunday, May 10, 2020

क्या "मदर्स डे" नामक फॉर्मूला इस गुत्थी को सुलझा सकता है?

बचपन में कई बार यह महसूस हुआ कि हमारी सबसे बड़ी दुश्मन हमारी "माँ" ही है। हम जो भी करना चाहे उसमें रोकती थी, बातों बातों में टोकती थी। कभी कभी झल्ला सा जाते थे, क्योंकि हमारी ज़िंदगी के पतंग की डोर माँ के हाथों में थी। अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी नही थी। हो भी कैसे 90s में जन्में मिडल क्लास परिवार से ताल्लुकात थे हमारे, "माय लाइफ - माय रूल" वाले ज़माने से नही।

लेकिन फिर भी कई बार माँ की नसीहत व आज्ञा की अवमानना की हमनें। जिस चीज़ के लिए माँ ने मना किया, उसे चोरी-छिपे झूठ बोलकर अंजाम दिया। कच्ची उम्र में माँ के अनुभव को पैरों तले रौंदकर बहुत बार आगे बढ़ तो गए, लेकिन नतीजा यह हुआ कि बाद में ग्लानि व पश्चाताप के सिवा कुछ न कर सके। फिर सोचने लगे ऐसा कौन सा राकेट साइंस पढ़ा हुआ है "माँ" ने, जिसके माध्यम से वह हमारे वर्तमान क्रियाकलापों का आगामी प्रतिफल पहले से ही जानती है। यह पहेली मेरे लिए तब भी अबूझ थी और आज भी अबूझ है। 

अब ऐसा भी नही था कि माँ ने हमें कुछ करने नही दिया, माँ ने केवल हमें उन्ही चीज़ों के लिए मना किया जिसका सुख केवल क्षणिक था या फिर बाहरी आवरण चमकदार। उनके आगामी परिणाम उनकी उस प्रवृति के बिल्कुल विपरीत थी। तब से हमनें यह ठान लिया कि माँ की बातों को नजरअंदाज नही करेंगे। कभी कभी माँ का कुछ फैसला हमारे लिए आजतक निरर्थक ही साबित हुआ, लेकिन आगामी जीवन में शायद उसके भी सकारात्मक परिणाम देखने को मिले।

अब आइये व्यवहारिक बातें करते है फालतू की बनावटी भावुक बातें नही। क्या आपके साथ ऐसा कभी नही हुआ कि माँ की किसी सलाह या नसीहत का निरादर करने से फजीहत झेलनी पड़ी हो आपको। या फिर माँ के विपरीत या अलग होकर किसी कार्य की गति में बाधा उत्पन्न हुई हो। क्या माँ के आशीष व उनकी श्रद्धा ने विषम परिस्थितियों में विजय नही दिलाई आपको। सोचिए, याद कीजिये।

हो सकता है माँ की बातें कभी-कभी कड़वी सी लगे। उनका निर्देश व आदेश स्वयं के अनूरूप न लगे। लेकिन इनसब के पीछे की मंशा मात्र आपकी समृद्धि व सलामती ही होती है। केवल माता-पिता का प्रेम ही निस्वार्थ होता है बाकी हर कोई जगत में सिर्फ अपने लिए जीता है।

माँ कभी अशिक्षित या अज्ञानी हो ही नही सकती। माँ बेशक कम पढ़ी लिखी हो, लेकिन स्वयं के संतान कल्याण हेतु समस्त ज्ञान का स्त्रोत माँ ही तो है। माँ जब एक नए जीवन को जन्म दे सकती है, भरण-पोषण कर सकती है, उचित संस्कार व परवरिश के माध्यम से अपने बच्चों को सींच सकती है.....तो संतान होते हुए भी उनसे पृथक होकर  किसी आश्रम में रहने पर मोहताज़ क्यों। क्या मदर्स डे नामक फॉर्मूला इस गुत्थी को सुलझा सकता है?

जिस तरह बाल्यावस्था में माँ हमें अपने साथ रखकर हमारा पथ प्रदर्शित करती है, बस हमें भी उनकी वृद्धावस्था में इतना ही करने की जरूरत है। यकीन मानिए माँ के सफेद बाल व झुर्रियां भी माँ द्वारा आपके हित की गवाही देंगे।


✍️ आशीष झा

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