बूढ़ी हो रही कई मांओं का कमरा घर के सबसे कोने में है. बाकी सारे कमरों से बेरंग. पता नहीं कैसे घर के सारे रंग मां के कमरे तक आते-आते खत्म हो जाते हैं. मां के कमरे में दुनियाभर की कई और सारी चीजें भरी हुईं हैं. जो बेहद पुरानी हैं. या फिर जिनके होने से बाकी और कमरों की रौनक बिगड़ जाती है. इन सामानों से भरे इस कमरे के एक कोने में मां की चौकी है. गहरी नींद की एक चौकी.
आज मां का दिन है. उसे नहीं मालूम कि उसका भी कोई दिन आता है. उसके लिए साल का हरेक दिन एक जैसा ही है. सूरज मां को नहीं जगाता, मां सूरज को जगाती है. मेरे ही तरह सूरज भी उसका एक बेटा है. जिसे मां हर रोज जगाती है.
इस अनलिमिटेड दुनिया में मां की दुनिया बेहद लिमिटेड है. परिवार, खेत, गाएं, बहनें. बस. सामान्य सा दिन हो या फिर कोई तीज-त्यौहार मां बस इनके लिए ही जीती आई है.
इन दिनों हफ्ते में एकाद बार परिवार के किसी न किसी से मेरे पास फोन करा लेती है. बस इतना कहने के लिए कि घर लौट आओ. देर तक बात करने से उसे लगता है कि मेरा ज्यादा पैसा कट जाएगा. कहती है ‘परदेसियों के लिए पैसा ही माई-बाप है’.
जिस शहर को मां ने देखा है. उसी शहर के किसी गली के किसी कमरे में, मैं कैद हूँ. मां ने अपने प्राण उसी कल्पना के रूम में अटका दिए हैं.
उसे खुशी हैं कि उसके बाद की माएं तराजू पर केवल अनाज नहीं रखतीं, बाट भी देखती हैं. उसे खुशी है कि मर्द बदल रहे हैं थोड़े-थोड़े. और इसी खुशी में उसे किसी से कोई शियाकत नहीं . अपने कमरे के बेरंग होने से भी नहीं.
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