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Tuesday, June 16, 2020

अगर आत्महत्या कायरता व असफलता है तो क्या सिर्फ मरने वाला ही इसका ज़िम्मेदार है?

सोचिए किसी भी इंसान की क्या मनोदशा होती होगी, जब वह जीने के बजाय मरना पसंद करता है। विषम से विषम परिस्थिति में जीना बेहद मुश्किल होता है, लेकिन स्वयं को मारना उससे भी कठिन। ज़िंदगी के सफर को जारी रखने के कई रास्ते होते हैं, जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तब भी कोई एक रास्ता जरूर खुला होता है। लेकिन उस रास्ते पर चलने के संघर्ष का बोझ हम झेल नही पाते हैं, और खुद को ही खत्म कर लेने के विकल्प का चयन कर लेते हैं।




ऐसा कभी नहीं होता की थोड़ी सी समस्या या थोड़े से तनाव के कारण ही कोई व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। अवसाद, तनाव, असफलता और बदनामी का डर जब अपनी सभी सीमाएं पार कर लेता है, तब कोई भी व्यक्ति ऐसे फैसले लेने पर विवश हो जाता है। हालांकि कम उम्र के बच्चों की मानसिक अवस्था आज के परिवेश मे उतनी दृढ़ नहीं हैं, लेकिन जब किसी आई.ए.एस ऑफिसर से लेकर सुशांत जैसे परिपक्व अभिनेता भी इस रास्ते का चयन कर रहे हों ..तब सोचने वाली बात यह है की सारी कायरता या समूची असफलता क्या सिर्फ उनकी ही है? क्या इन आत्महत्याओं के दोषी उनके परिजन, मित्रगण, सहकर्मी और उस समाज व परिवेश के लोग नहीं हैं।

आज से 10-15 साल पीछे जाइए, आज की अपेक्षा आत्महत्या के मामले बेहद कम थे या न के बराबर थे। कारण एकमात्र था लोगो में आपसी जुड़ाव की भावना आज की तुलना में कहीं ज्यादा थी। लोग एक दूसरे की कद्र करते थे, फिक्र करते थे, प्रेम करते थे। ऐसा नही है कि आज के समय में कद्र, फिक्र या प्रेम की भूमिका बिलकुल नगण्य सी हो गयी है..लेकिन किसी भी रिश्तों मे आज औपचारिकता की झलक साफ-साफ नजर आती है। लोग पास होकर भी दूर प्रतीत होते हैं।


सुशांत जैसे किसी भी व्यक्ति की आत्महत्या हमारे रहन-सहन व जीवन जीने की पद्धति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। सुशांत को जानने वाले जितने भी लोग उसके जाने पर जो ट्वीट द्वारा अपना दुख प्रकट कर रहे है, असल में उन्हे सुशांत से कुछ लेना देना था ही नही।  यही आज के समय की हकीकत भी है। हम में से ज्यादतर लोग केवल खुद के लिए जी रहे है। दूसरों की समस्या या परेशानियों को लेकर हम सजग है ही नही, मै खुद भी नही हूँ। अहं और श्रेष्ठ बनने के रवैये ने हमें अपनों से भी अलग थलग कर दिया है। जबकि व्यावहारिक तौर पर देखा जाये तो यहाँ एक दूसरे की जरूरत हम सभी को है। 




डिजिटलिकरण के इस दौर ने हमें पास लाने का काम कम और दूर करने का काम ज्यादा किया है | लोग अपने आस-पास उपस्थित लोगो के बजाए इंटरनेट से सलाह मशविरा ले रहे हैं। इंटरनेट के दुनियाँ की इस अंधी दौर ने लोगों को लोगों से अलग कर दिया है। आभासी दुनिया वास्तविक दुनिया पर हावी सी नजर आती है, जिस कारण लोगों की मानसिक अवस्था भी प्राकृतिक न होकर कृत्रिम जैसा व्यवहार करती है। हम इंसान से धीरे धीरे एक ऐसी मशीन बनते जा रहे है, जो सिस्टम कभी भी करप्ट हो सकता है।

तनाव या अवसाद जैसी इस स्थिति से उबरने के लिए एकमात्र विकल्प है, अपने परिचितजनों से सार्थक व सकारात्मक वार्तालाप की शुरुआत। एक दूसरे की समस्याओं का मिलकर निदान करना, व सामने वाले की मनोस्थिति का अंदाज़ा लगाकर उसके अन्तर्मन में पनप रहे द्वंद को पहचान एक सकारात्मक प्रयास की शुरुआत करना ही ऐसी स्थितियों से उबरने का एक बेहतर मार्ग है।


हालांकि जितना मैं खुद को जानता हूँ, मैं मुश्किल से मुश्किल समय में लोगों के लिए उपस्थित रहा हूँ। कभी जताने की चेष्टा नही की है, लेकिन अब एक अजीब सा डर लग रहा है। खोने का डर, लेकिन पता नही किसके खोने का? बस कल से ही भीतर एक उथल पुथल सी हो रही है। बात बेशक बनावटी या औपचारिक लगे, लेकिन मैं अपने सभी जानने वालों के लिए सदेव उपस्थित हूँ। आपको भी केवल यही करना हैं, बस उपस्थित रहना है।

-आशीष झा

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1 comment:

  1. Logo ke pas waqt nahi hai kisi ki takleef sunne ki apne takleefon ko khud se share karte karte log khud uska solution nikalte h aur kuchh log sudhant ban jate hn lekin ye jo unko follow karte hain unpar bura effect dalta h

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