जब भी घर पे माँ, दादी, चाची सबको दिन रात काम करते हुए देखता हूँ तो मुझे उनसे सहानुभूति होने लगती हैं। घर पर इतना काम होता हैं कि उन्हें कभी नहाते-खाते शाम भी हो जाती हैं। और जब मुझे कुछ ज्यादा ही एहसास होने लगता हैं तो मैं जुट जाता हूँ उनकी मदद में, जबकि वो बिलकुल ऐसा नही चाहती।
दादी- जो न तू बाबू..हम कैर लबे।
माँ - ज्यादा दिखाओ मत..जाओ और पढ़ो।
चाची - आप छोड़ दीजिए आशीष..हम कर लेंगे।
इन्ही सब को देखते हुए, पिछली बार जब होली में घर गया था तो एक "किचन मशीन" का कॉम्बो पैक लेकर गया था।
उस कॉम्बो पैक मशीन में बहुत सारे आइटम्स थे। जैसे प्याज को काटने की मशीन, मसाला पीसने की मशीन, पुरुकिया/गुजिया बनाने की मशीन, आटा गूथने की मशीन चिप्स बनाने की मशीन..और भी बहुत सारी तरह तरह की।
लेकिन दादी तो दादी हैं..माँ तो माँ हैं। मेरी उन मशीनों में रखे-रखे जंग लग गया। दादी और माँ को कोई भी मशीन लाकर दे दो..प्याज वें हसुआं से ही काटेगी, मसाला वे सिलबट्टे पे ही पीसेगी, पुरुकिया/ठेकुआ हाथों से ही बनायेगी।
इस बार फिर होली में घर जाने का समय आ गया हैं। माँ से बात की और कहाँ इस बार एक नया "किचन कॉम्बो पैक" लेकर आ रहा हूँ।
माँ ने कहा- मुँह तोड़ दूंगी तू लेकर तो आ, फ़ालतू के पैसे अगर बर्बाद किये तो।
कभी कभी कुछ चीज़ें नहीं बदलती और इस न बदलने में भी उसका अपना मजा हैं। मैंने फर्क महसूस किया हैं चूल्हे की रोटी में और गैस की रोटी में। मिक्सी के मसालों में और सिलबट्टो पर पिसे मसालों में। ऐसा लगता हैं जैसे अपने हाथों के ज़रिये प्रेम घोल दिया हो उसमें।
लेकिन, बहुत सी ऐसी चीजें है जो बदल गयी और अब याद आती हैं तो खो जाता हूँ उनमें। कुछ चीज़ें बदलना नहीं चाहती लेकिन हम भिड़े हुए हैं सुख-सुविधा के लिए।
उन्हें छोड़ दीजिए जैसे वे हैं..उनकी संतुष्टि हैं उसमें और उसका एक अपना ही मजा हैं। वरना एक दिन ऐसा भी आएगा जब माँ के हाथ का खाना से भी बाजार का बेस्वाद महसूस करोगे।
~आशीष
Shandar
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