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Wednesday, February 7, 2018

एक कविता रोज का डोज़: इक बार कहो तुम मेरी हो।



 उर्दूकवि और व्यंग्यकार 'इब्ने इंशा ' की शोहरत यूं तो उनकी ग़ज़ल 'कल चौदहवीं की रात थी' के लिए है, लेकिन उन्होंने पचास साल की अपनी उम्र में ऐसी कई यादगार ग़ज़लें, गीत और व्यंग्य लिखे, जो एक नज़ीर की तरह पेश किए जाते हैं।

जन्म : 15 जून 1927
मृत्यु : 11 जनवरी 1978
                               इब्ने इंशा

इक बार कहो तुम मेरी हो
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हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।


हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।


दीद=दर्शन
सेरी=तॄप्ति
सूद-ख़सारे=लाभ-हानि

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