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Wednesday, March 28, 2018

पान - भारत का अपना माउथ फ्रेशनर


तब शहर-कस्बों में पान की बहुत दुकानें हुआ करती थीं। उन पर भीड़ भी। यह किसी का पता पूछने के लिए भी एक विश्वसनीय केंद्र होता था। 

दूकानों के नाम 'अमुक पान भंडार', 'पान पैलेस' या 'अधर श्रृंगार' टाइप होते ।

दोनों समय भोजन के बाद पान खाना आम बात थी। 'चलो, पान खाकर आते हैं' एक सहज और स्वीकार्य वाक्य था। पान खाना लत नहीं शौक माना जाता था।
पान की पहली पीक थूक कर ही बाद में उसका रस लिया जाता।

दूकान पर पहुंचते ही पानवाला आपका अभिवादन नहीं करता बल्कि आपको देखते ही 'आपके वाला' पान बनाने लगता। यही उसका 'नमस्कार' होता। सैकड़ों ग्राहकों के पान की तरहें याद रखना विलक्षण स्मरण शक्ति का उदाहरण है।

कई बार यह शौक इस कदर सिर चढ़ता कि घर में ही पान लगाने की व्यवस्था की जाती। हालांकि इसके लिए बहुत खटकर्म करने होते मसलन कत्था-चूना तैयार करना, सहायक सामग्री सुपारी, इलायची, चटनी, चमन बहार, लौंग वगैरह की उपलब्धता बनाए रखना। घर पर पान लगने पर खाने की फ्रिक्वेंसी भी बढ़ जाती और कपड़ों पर लगने वाले दाग भी।

फिल्मों में पान पर बहुत ज़्यादा गाने नहीं हैं। एक तो 'डॉन' का ही 'खईके पान बनारस वाला' और एक वह है 'पान खाएँ सैंया हमारे....मलमल के कुर्ते पे छींट लाल-लाल'। हालांकि ये छींटे गृह-क्लेश का कारण भी होते।

उन दिनों महिलाओं की पत्रिकाओं में कत्थे के दाग छुड़ाने की कई घरेलू विधियाँ छपतीं। उन्हें ट्राय भी किया जाता पर अक्सर वे राजनीतिक जुमलों की तरह बेअसर होतीं।

पान का शौक बहुत महँगा नहीं होता। एक मध्यवर्गीय जेब खर्च के दायरे में आ जाता है। हालांकि इसके भी तोड़ ढूंढ लिए गए। पान की दूकान वाला एक पत्ते पर चूना-कत्था लगा कर कैंची से दो हिस्सों में काट देता। फिर दोनों हिस्सों पर सहायक सामग्री सजाई जाती। इसे 'पट्टी' कहते। यानि एक पान की कीमत में दो पान! यह सौदा पान वाले को थोड़ा महँगा पड़ता क्योंकि सामग्री ज़्यादा लगती लेकिन यह विधि लोकप्रिय होने के कारण अधिक ग्राहक खींचती और दूकान वाले की प्रतिपूर्ति हो जाती। यह उत्पादक और उपभोक्ता द्वारा साझा हित में सृजित अर्थशास्त्र था।

इसे आप मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन मुझे लगता था कि पान की गिलौरी मुँह में रखते ही एक तरह की तल्लीनता आपके भीतर तैरने लगती है। वो आपके सोचने/काम करने में एक उत्प्रेरक (catalyst) की तरह होती है। और हाँ, आवारगी में भी।

फिर आया 'पान पराग'। इसने पान की विदाई में प्रमुख भूमिका निभाई। बारातियों का स्वागत पान पराग से करने के विज्ञापन से जो बाज़ार बना वह गुटकों के पाउचों की झालरों से झिलमिलाता मार्केट कहलाया।
आज बस कुछ क्षेत्रों (मिथिला,बनारस) को छोड़ दिया जाय तो पान धीमे-धीमे अपने समूचे हरेपन के साथ विदा हो गए।

कुछ पान से जुडी बातें/यादें हो तो हमें जरूर बताएं।

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