डॉ भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य भारत के छावनी क़स्बे महू में हुआ था। जो इंदौर शहर के निकट है। वह रामजी सकपाल और भीमाबाई मुरबडकर सकपाल की चौदहवीं और अंतिम संतान थे। जब वह दो वर्ष के थे तो उनकी माता का देहांत हो गया था और उसी वर्ष उनके पिता सेना से रिटायर्ड हुए थे।
परिवार में कबीर और तुकाराम की भक्ति की परंम्परा थी, लेकिन रामजी सकपाल ने अपने बच्चों को हिन्दू महाकाव्यों में भी शिक्षित किया। युवा लड़के के रूप में अंबेडकर को रामायण और महाभारत के विषय में कुछ शंकाएं थी। तथाकथित नीच कुल में जन्में कर्ण की मृत्यु को लेकर वो खासतौर पर व्यथित थे।
तिरस्कार का जीवन
जिल्लत और नाइंसाफी का सामना आंबेडकर के बचपन से ही शुरू हो गया था। वह अपनी चाची के साथ रहकर सतारा के एक सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। एक नए बने ब्रिटिश कानून की बदौलत आंबेडकर को सछूतों के स्कूल में पढ़ने की अनुमति मिल गयी थी। लेकिन फिर भी यहां पर उनको अपने सहपाठियों से अलग एक बोरी के टुकड़े पर बैठने के लिए मज़बूर किया जाता था, जिससे कि वह फर्श पर बैठकर उसे दूषित न कर दें। उनको दिनभर प्यासे रहना पड़ता था क्योंकि वो सछूतों के पीने वाली टोंटी कहीं दूषित न कर दें। यहां तक की वह नाई जो भैसों और बकरों के बाल मूड़ते थे वो भी उनके बाल काटने से मना कर देते थे।
इन समस्यायों को झेलते हुए आंबेडकर ने 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। वह एल्फिंस्टोन हाइस्कूल के एकमात्र अछूत विद्यार्थी थे। एक महार बालक के लिए यह एक असाधारण उपलब्धि थी। इसके तुरंत बाद उनका 9 वर्षीय रमाबाई के साथ विवाह हो गया।
जब डॉ आंबेडकर की एक सवर्ण राजा ने की सहायता
आंबेडकर की स्नातक की पढ़ाई के लिए आगे चलकर एक विशेषाधिकार प्राप्त प्रगतिशील सवर्ण राजा ने 25 रूपये महीने की छात्रवृति दे दी। विपरीत परिस्थितियों में भी बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने आंबेडकर का साथ दिया। जब आंबेडकर स्नातक हो गए तो उनको विदेश जाकर पढ़ने के लिए भी महाराजा ने छात्रवृति दी थी। सयाजीराव की मदद से ही कक्षा की फर्श पर बोरी के एक टुकड़े पर बैठकर पढ़ने वाले छात्र को न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया।
पारसी होने का ढोंग
आंबेडकर 1917 में जब बड़ौदा लौटे तो रहने के लिए शहर में कमरा ढूंढ़ रहे थे। इस दौरान उनके हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई मित्र यहाँ तक की उनके साथ कोलंबिया में पढ़े हुए मित्रों ने भी उनका साथ नहीं दिया। अंततः पारसी होने का ढोंग करके उन्हें बड़ौदा के एक पारसी सराय में कमरा मिल गया। लेकिन जैसे ही मालिक को पता चला ये तो अछूत है, उसने तुरंत आंबेडकर का सामान उठवाकर बहार फेंकवा दिया। जिसपर आंबेडकर ने बाद में लिखा, " मैं आज भी उस घटना को अच्छे तरीके से याद कर सकता हूँ लेकिन जब भी उस घटना की याद आती है मैं अपने आंसुओं को नहीं रोक पाता हूँ। उस दिन मुझे पता चला, जो व्यक्ति एक हिन्दू के लिए अछूत है वह पारसी के लिए भी अछूत है।"
स्रोत- एक था डॉक्टर और एक था संत ( अरुंधति रॉय)