बधाई हो 21वीं सदी भारतियों की होगी। ये जुमला अच्छा है पर इसकी कुछ विडंबनाएं भी हैं। क्या इतना आसान है 21वीं सदी को अपना बना लेना? तमाम कुरीतियों के बीच एक है "माहवारी" शब्द, जिसको लेकर हमारे अंदर पूर्वाग्रह और अमानवीय विचार भरे हुए हैं।
ASER 2018 की एक रिपोर्ट के माध्यम से पता चलता है कि माहवारी के शुरु होते ही 11 से 14 वर्ष के बीच की 7.4 प्रतिशत लड़कियां अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं। और ऐसे ही सामाजिक दबाव और माहवारी स्वच्छता संबंधी उत्पादों की अनुपलब्धता के कारण बहुत सी लड़कियाँ माहवारी के समय स्कूल नहीं पहुंच पाती हैं। यह हालात तो 21वीं सदी के भारत के हैं लेकिन ऐसे ही आंकड़े लगभग दुनिया के हर गरीब और विकासशील देश के हैं। हमारी शिक्षा, संस्कार और सामाजिक जागरुकता इसके सबसे बड़े कारण हैं।
लॉकडाउन के कारण माहवारी के दौरान महिलाओं और लड़कियों को कई समस्यायों का सामना करना पड़ रहा है। 45 स्वास्थ्य प्रोफेसनल्स के 30 देशों में हुए सर्वे के मुताबिक 71 प्रतिशत महिलाओं और लड़कियों का मानना है कि उनको माहवारी प्रबंधन से जुड़े उत्पादों को प्राप्त करने में समस्या हुई है। आप समझ सकते हैं कि जब ब्रिटेन जैसे देश में 10 में से 3 लड़कियों को ऐसी समस्या का सामना करना पड़ रहा है तो भारत की क्या ही स्थिति होगी?
मानव सभ्यता से लेकर अब तक माहवारी शब्द को एक कलंक की तरह देखा जाता रहा है। 21वीं सदी को भारत के नाम करने के लिए हम सब को जागरूकता की उस पराकष्ठा को पार करना होगा जहां "माहवारी" को अन्य सामान्य क्रियाओं की तरह देखा जाने लगे।
दक्षिण एशिया में माहवारी को लेकर यूनिसेफ के कुछ आंकड़े
- 52% किशोरियों को माहवारी से जुड़ी सामान्य जानकारी नहीं है।
- 71% किशोरियों को अपनी पहली माहवारी के बारे में कोई समझ नहीं रहती।
- 70% माताएं अपनी बच्चियों को माहवारी को एक "गन्दी" प्रक्रिया बताती हैं।
- 51% किशोरियों ने स्वीकार किया है कि स्कूलों में माहवारी प्रबंधन की कोई सुविधा नहीं होती है।
- माहवारी के दौरान किशोरियों का स्कूल प्रतिमाह 1-2 दिन छूट जाता है।
- 58 % महिलाएं और किशोरियां ही हाइजेनिक प्रोटेक्शन का प्रयोग करती हैं।
अम्बरीश कुमार
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