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Friday, February 9, 2018

Reservation or discrimination: क्यों जरूरी है आरक्षण की समीक्षा।


आरक्षण पर चर्चा हो। इससे पहले यह आवश्यक है कि हम सभी को आरक्षण की मूल परिभाषा तथा उद्देश्य की जानकारी हो । इसलिए सर्वप्रथम आरक्षण क्या है ? इस पर चर्चा ।
             "सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक रूप से वंचित अथवा पिछड़े लोगों को मुख्यधारा में लाने हेतु दी गई रियायत  अथवा लाभ आरक्षण है।"

               यह तो रही मूल परिभाषा । वह परिभाषा जो शायद विश्व में हर देश, हर स्थान पर सर्वमान्य होगी।  परंतु अगर  परिभाषा को गौर से देखा जाए ,तो हम पाएंगे कि कुछ शब्दों के अर्थ, समय तथा स्थान के आधार पर परिवर्तित होते रहते हैं । जैसे सामाजिक । 'समाज' की अब तक कोई स्थाई परिभाषा नहीं बन पाई है । इसका कारण है कि संस्कृतियों , मान्यताओं तथा रहन-सहन के अनुसार, समाज अपनी रूपरेखा स्वयं तय कर लेता है। तथा इस विशाल विश्व में इतनी भिन्नताएं हैं कि अब तक हम समाज की कोई सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं कर पाए हैं।

          ऐसे ही एक दूसरा शब्द है 'पिछड़ा'। आधुनिक विश्व में पिछड़ेपन का मूल कारण, समाज, अर्थ तथा शिक्षा को ही माना गया है। परंतु गहन अवलोकन से हम पाते हैं ,कि हर देश अथवा क्षेत्र में पिछड़ों की अपनी अपनी अलग कोटी है। जैसे रंग, लिंग, धर्म , जाति , संख्या इत्यादि।

   
                     उपरोक्त बातें आरक्षण के सैद्धांतिक पक्ष का उल्लेख कर रही थी । अब अगर इसके व्यवहारिक पक्ष की बात की जाए । तो विश्व के कई बड़े देशों में आरक्षण की व्यवस्था स्थापित की गई है। स्थिति समझने के लिए आगे हम विश्व के अन्य देशों में आरक्षण के रूप को देखते हैं ।

1. ब्राजील में ऐनम और वेस्टिबुलर नामक परीक्षाएं ली जाती है । जिनके आधार पर क्रमशः हाईस्कूल और उच्च संस्थानों में नामांकन की प्रक्रिया पूरी होती है। इस परीक्षा में सरकार अपनी जनगणना के आंकड़ों द्वारा आरक्षण तय करती है। तथा छोटे ,गरीब अथवा वंचितों को इसका लाभ देती है।

2. वहीं कनाडा में रोजगार समानता अधिनियम के अनुसार औरतों , विकलांगों एवं अन्य अल्पसंख्यक समूह को, जिनकी संख्या लगातार घट रही हो । उन्हें नौकरी के अवसर उपलब्ध कराने हेतु , आरक्षण प्रदान की जाती है ।

3. जबकि चीन में विभिन्न सरकारी तथा निजी संस्थानों में वैसी महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। जिनकी राष्ट्रीयता या सांस्कृतिक मान्यताएं मूल निवासियों से भिन्न है ।

4. फिनलैंड में स्वीडन के लोगों के लिए विशेष आरक्षण व्यवस्था है ।

5. वहीं जर्मनी में जिम्नेजियम व्यवस्था के तहत उच्च शिक्षा में इच्छुक लोगों के लिए आरक्षण दी जाती है।

6. श्रीलंका में तमिल तथा ईसाईयों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है ।

                 ऐसे ही कई और भी देश है , जहां आरक्षण की व्यवस्था की गई है ।


                 अब बात करते हैं हम भारत में आरक्षण के स्वरूप की ।

          भारत में आरक्षण का इतिहास काफी पुराना है । माना जाता है , कि महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराज छत्रपति शाहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में इन्हें इनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण प्रारंभ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों , समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गई थी । यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश था ।
                    अगर सही मायने में देखा जाए तो भारत अपने ही बनाए जाल में जा फंसा है। जहां जाति व्यवस्था ने इस कदर अपनी जगह बना ली है, कि अछूत तथा जातिगत पिछड़े वर्गों के लिए समाज बिल्कुल कट चुका है।


           - भारत में जातिगत आरक्षण का प्रावधान अंग्रेजों ने 1908 में लाया था ।

           - फिर 1921 में गैर ब्राह्मणों के लिए 44 फ़ीसदी , ब्राह्मणों के लिए 16 फ़ीसदी, भारतीय आंग्ल ईसाइयों के लिए 16 फ़ीसदी , तथा अनुसूचित जातियों के लिए 8 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था मद्रास प्रेसिडेंसी में की गई थी।
       
                  पर आरक्षण ने असली करवट 1979 में ली। जब 'मंडल आयोग' का गठन हुआ। पर आयोग ने कई त्रुटियां की । जैसे आयोग के पास ओबीसी श्रेणी का कोई सटीक आंकड़ा ना होने के कारण , आयोग ने 1930 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए। पिछड़े वर्ग के रूप में 1257 समुदायों को वर्गीकृत किया। 1980 में आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की तथा मौजूदा कोटे में बदलाव करते हुए 22 फ़ीसदी से 49.5 फ़ीसदी वृद्धि करने की सिफारिश की । 2006 में पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 पहुंच गई। जो कि मंडल आयोग के समय से 60 फ़ीसदी अधिक है। 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मानते हुए सरकारी नौकरियों में इसे लागू किया। 1991 में नरसिंहा राव ने ऊंची जाति के गरीबों के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण की शुरुआत की। 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा 27 फ़ीसदी ओबीसी कोटे के प्रावधान को सही ठहराया। पर क्रीमी लेयर में आने वाले 250000 प्रतिवर्ष से अधिक कमाने वालों को आरक्षण से बाहर रखने को भी कहा।



                  भारत में आरक्षण पर चर्चा हमेशा से अपने पक्ष को देखते हुए की गई है। आरक्षण सदैव ही भारत में राजनीति का केंद्र रहा है । क्योंकि धर्म तथा जातियां भारतीय राजनीति के इर्द-गिर्द हमेशा से घूमती आई हैं ।

               परंतु अब अगर व्यवहारिक दृष्टिकोण से बात की जाए। तो इसके क्या नफा-नुकसान हैं , हम वर्तमान परिस्थिति में देख सकते हैं । मंडल आयोग के वक्त ही यह भी कहा गया था किया आरक्षण 1930 में हुई जनगणना के आधार पर है , जिसे समय के अनुसार परिवर्तित किया जाना है । परंतु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आने के बाद लगातार मंडल आयोग की सिफारिशों को 10 साल के लिए बढ़ा देती हैं। ऐसा करके उन्होंने ना सिर्फ ओबीसी तथा पिछड़े कोटे में अपना वोट बैंक बनाया । वहीं दूसरी ओर गरीब ऊंची जाति वालों को उनका हक नहीं मिल पाया। जबकि 1991 के नरसिम्हा राव की सरकार ने ऊंची जाति के गरीबों के लिए भी 10% आरक्षण की शुरुआत की थी। फिर अगर सुप्रीम कोर्ट के 2008 के आदेश को ठीक से देखा जाए तो सरकार ने क्रीमी लेयर को आरक्षण की श्रेणी से बाहर रखने का प्रावधान भी दिया था। लेकिन सरकारों ने इस पर किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की।

             आसान भाषा में बात की जाए तो कुछ उदाहरणों से हम चीजों को आसानी से समझ पाएंगे । जैसे मेरे जिले के कलेक्टर अगर नीची जाति के हैं तो उन्हें आरक्षण मिलता है , आर्थिक तथा शैक्षणिक रूप से परिपूर्ण होने के बावजूद भी उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता रहेगा । वहीं अगर दूसरी ओर एक गरीब ब्राह्मण परिवार , जिसका मुखिया किसी मंदिर में पुजारी है और पूरे दिन के चढ़ावे के रूप में उसे 100 से 150 रुपए मिलते हैं। इस 150 रुपए में वह अपना पूरा दिन गुजरता है तथा अपने परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था भी करता है। परंतु ऊंची जाति के होने के कारण उस ब्राह्मण परिवार को आरक्षण नहीं मिलेगा।

              यह कहीं से भी न्यायोचित तथा तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। इन स्थितियों से निपटने के लिए हमारी टीम 'कड़क मिजाजी' ने आपसी बहस के बाद कुछ उपाय निकाले हैं । जिनके द्वारा आरक्षण का सही उपयोग कर जरूरतमंदों को इसका लाभ दिया जा सकता है । जैसे सबसे पहले सरकार यह तय कर ले की वैसे कौन लोग हैं जिन्होंने आरक्षण का लाभ एक बार ले लिया है। वैसे परिवारों को चिन्हित कर आरक्षण की श्रेणी से बाहर किया जाए तथा उनके स्थान पर उन परिवारों को शामिल किया जाए जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है तथा उन्हें आरक्षण की आवश्यकता है । वहीं दूसरी ओर सरकार आरक्षण की समय समय पर समीक्षा करते रहें तथा अपने जनगणना के आंकड़ों के अनुसार जातियों को चिन्हित करें जो आजादी से अब तक मुख्यधारा में नहीं आ पाई हैं। तथा यह भी सुनिश्चित करें कि आगामी 20 , 25 या 50 सालों के बाद जातिगत आरक्षण को हटाकर आर्थिक आरक्षण को स्थापित करें । या फिर एक बेहतर व्सयावस्था लाए।


               इसके कई फायदे हो सकते हैं। समाज में फैली जाति व्यवस्था पर चोट की जा सकती है। जातियों के बीच बनी खाई को मिटाया जा सकता है तथा आपसी प्रेम द्वारा जातीय द्वेष भूल कर एक सुरक्षित तथा स्वस्थ समाज का निर्माण किया जा सकता है । परंतु इन सभी चीजों के लिए सबसे पहले सरकार तथा विभिन्न राजनीतिक दलों को मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा। ओछी राजनीति को छोड़कर, सबसे पहले देश के बारे में सोचना होगा।


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