आजकल अपने देश में शादियों में एक नया चलन देखने को मिल रहा है। वह यह कि वधू पक्ष के लोग शादी से एक दो दिन पहले अपनी बेटी को वर पक्ष के शहर, कस्बे या गांव ले जाते हैं और विवाह की रस्में वहीं निभाते हैं। यहां तक कि शादी की दावत भी दोनों पक्ष मिलकर एक ही जगह करते हैं। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है कि ऐसा करने से जहां एक ओर वर पक्ष का वधू के शहर, कस्बे या गांव तक बारात लेकर जाने का खर्च बचता है तो वहीं दूसरी ओर वधू पक्ष के लोगों को दावत का खर्चा आधा ही करना पड़ता है। इस नए चलन का सबसे ज्यादा असर वधू की सहेलियों पर पड़ रहा है, जो कि वर्षों से शादी की रस्में अपनी आंखों से देखने का इंतजार करती रहती हैं।
अब इन सहेलियों को रस्मों के नाम पर सिर्फ एक ही रस्म देखने को मिलती है, वह है महिला संगीत। शादी के लिए दूसरे शहर रवाना होने से एक दो दिन पहले वधू पक्ष के लोग अपने परिचितों को महिला संगीत के लिए आमंत्रित करते हैं, जहां थोड़ा बहुत नाच गाना और हल्का फुल्का जलपान होता है। इस नए चलन ने लड़की की शादी से वे खूबसूरत दृश्य छीन लिए हैं जो पहले आमतौर पर सभी लड़कियों की शादी में देखने को मिलते थे। बारात का आना, लड़की की सहेलियों और पड़ोस की महिलाओं का छतों से बारातियों का नाच देखना, दूल्हे की उम्र का अंदाजा लगाना, दूल्हे के रंग-रूप पर आपस में चर्चा करना, शादी के फेरे होते देखना आदि। लेकिन सबसे खास होता था विदाई समारोह, जिसे देखने मुहल्ले या गांव की महिलाएं बिन बुलाए पहुंच जाती थीं।
ऐसा नहीं है कि ऐसे दृश्य आजकल बिल्कुल देखने को ही नहीं मिलते हैं। आज भी गांवों में अधिकांश शादियां पूरी तरह पारंपरिक तरीके से ही हो रही हैं। लेकिन जिस तरह से वधू पक्ष के लोगों का वर पक्ष के घर के आसपास जाकर शादी करने का चलन बढ़ रहा है, उससे यह तो लगता है कि कहीं यह चलन भविष्य में स्थापित परंपरा ही न बन जाए।
हो सकता है कि कुछ लोग इस नए चलन को आधुनिकता का प्रतीक मानते हों। लेकिन ऐसा लगता है कि यह नया चलन आधुनिकता का कम और मजबूरी और लाचारी से ज्यादा जुड़ा है। दरअसल दहेज और सोने चांदी के खर्च ने लड़की की शादी को इतना खर्चीला बना दिया है कि गरीब या निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के लिए लड़की की शादी उत्सव की बजाय एक मजबूरी का कार्यक्रम ज्यादा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि यह नया चलन दहेज प्रथा के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए ही शुरू हुआ हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि दहेज और सोने चांदी में कटौती करने की बजाय दावत के खर्च में कटौती की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरुष प्रधान समाज में वर पक्ष अब इतना भी कष्ट नहीं उठाना चाहता कि बारात लेकर लड़की के घर के द्वार तक जाए? क्या दहेज का दानव इतना विशाल हो गया है कि उसने लड़की के घर में होने वाली रस्में तक समाप्त कर दी हैं?
वैसे एक बात तो सच है कि अगर लड़की वालों पर शादी के लिए सोना चांदी और दहेज जुटाने का बोझ न हो तो लड़की वालों को दावत और खाने पीने के खर्च में कटौती न करनी पड़े। काश हमारा समाज सोने चांदी के गहनों का महत्त्व समझने की बजाय खाने पीने और उत्सव मनाने के महत्त्व को समझता। जब लड़के की शादी उत्सव है तो लड़की की शादी भी तो उत्सव है। अगर समाज हिम्मत दिखाकर सोने चांदी और दहेज की प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंके तो शादी ब्याह करना इतना आसान हो जाएगा कि लड़की वालों को दावत का खर्च और लड़के वालों को बारात ले जाने का खर्च बोझ न लगेगा।
अब इन सहेलियों को रस्मों के नाम पर सिर्फ एक ही रस्म देखने को मिलती है, वह है महिला संगीत। शादी के लिए दूसरे शहर रवाना होने से एक दो दिन पहले वधू पक्ष के लोग अपने परिचितों को महिला संगीत के लिए आमंत्रित करते हैं, जहां थोड़ा बहुत नाच गाना और हल्का फुल्का जलपान होता है। इस नए चलन ने लड़की की शादी से वे खूबसूरत दृश्य छीन लिए हैं जो पहले आमतौर पर सभी लड़कियों की शादी में देखने को मिलते थे। बारात का आना, लड़की की सहेलियों और पड़ोस की महिलाओं का छतों से बारातियों का नाच देखना, दूल्हे की उम्र का अंदाजा लगाना, दूल्हे के रंग-रूप पर आपस में चर्चा करना, शादी के फेरे होते देखना आदि। लेकिन सबसे खास होता था विदाई समारोह, जिसे देखने मुहल्ले या गांव की महिलाएं बिन बुलाए पहुंच जाती थीं।
ऐसा नहीं है कि ऐसे दृश्य आजकल बिल्कुल देखने को ही नहीं मिलते हैं। आज भी गांवों में अधिकांश शादियां पूरी तरह पारंपरिक तरीके से ही हो रही हैं। लेकिन जिस तरह से वधू पक्ष के लोगों का वर पक्ष के घर के आसपास जाकर शादी करने का चलन बढ़ रहा है, उससे यह तो लगता है कि कहीं यह चलन भविष्य में स्थापित परंपरा ही न बन जाए।
हो सकता है कि कुछ लोग इस नए चलन को आधुनिकता का प्रतीक मानते हों। लेकिन ऐसा लगता है कि यह नया चलन आधुनिकता का कम और मजबूरी और लाचारी से ज्यादा जुड़ा है। दरअसल दहेज और सोने चांदी के खर्च ने लड़की की शादी को इतना खर्चीला बना दिया है कि गरीब या निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के लिए लड़की की शादी उत्सव की बजाय एक मजबूरी का कार्यक्रम ज्यादा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि यह नया चलन दहेज प्रथा के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए ही शुरू हुआ हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि दहेज और सोने चांदी में कटौती करने की बजाय दावत के खर्च में कटौती की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरुष प्रधान समाज में वर पक्ष अब इतना भी कष्ट नहीं उठाना चाहता कि बारात लेकर लड़की के घर के द्वार तक जाए? क्या दहेज का दानव इतना विशाल हो गया है कि उसने लड़की के घर में होने वाली रस्में तक समाप्त कर दी हैं?
वैसे एक बात तो सच है कि अगर लड़की वालों पर शादी के लिए सोना चांदी और दहेज जुटाने का बोझ न हो तो लड़की वालों को दावत और खाने पीने के खर्च में कटौती न करनी पड़े। काश हमारा समाज सोने चांदी के गहनों का महत्त्व समझने की बजाय खाने पीने और उत्सव मनाने के महत्त्व को समझता। जब लड़के की शादी उत्सव है तो लड़की की शादी भी तो उत्सव है। अगर समाज हिम्मत दिखाकर सोने चांदी और दहेज की प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंके तो शादी ब्याह करना इतना आसान हो जाएगा कि लड़की वालों को दावत का खर्च और लड़के वालों को बारात ले जाने का खर्च बोझ न लगेगा।
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