अक्षय तृतीया को लेकर कई सारी मान्यताए व प्रथा है, लेकिन एक ऐसी प्रथा जो हमारे मिथिला समाज मे काफी प्रचलित है उसी से संबन्धित एक अनुभव आपसे साझा करने जा रहा हूँ।
मिथिला परंपरा के अनुसार गाँव के कुछ लोग इकट्ठे होकर इस बैसाख की गर्मी मे समस्त ग्रामवासी व राहगीरो को शरबत पिलाकर तृप्त करते हैं। कहीं कहीं आम के जूस व नींबू पानी का वितरण भी किया जाता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह परंपरा गायब सी हो गयी। लोग खुद मे इतने व्यस्त हो गए कि सामाजिक भागीदारी वाला यह पावन पर्व बस नाम का पर्व रह गया। उन्ही दिनों पड़ोस के एक भैया दुबई से लौटे थे। उन्हें जब पता चला कि शरबत पिलाने कि प्रथा लुप्त होने के कगार पर है, तो उन्होने मुझसे बात की और यह निर्णय लिया कि इस बार गाँव में शरबत पिलाने का आयोजन फिर से किया जाएगा।
यह खबर सुनते ही गाँव में एक चहल पहल सी छा गयी। बड़े बुजुर्ग अक्षय तृतीया के पुराने किस्से फिर से याद करने लगे। बच्चे इधर उधर दौड़ कर जायजा लेने लगे कि आखिर शरबत तैयार हुआ कि नही। दलान पर एक पुराना कुआं था, वही आठ-दस बड़ी बाल्टियाँ इकट्ठी की गयी। तबतक मंगलू पास वाले बाज़ार से चीनी, नींबू व रसना के पैकेट ले आया था। भोला भैया बर्फ के बड़े बड़े टुकड़े लेकर आए थे। कुएं से पानी निकाला गया, शरबत बनाने की विधि शुरू की गयी। आसपास बड़े बुजुर्ग व बच्चों की काफी भीड़ सी जमा हो गयी थी।
शरबत पिलाने का काम शुरू हो गया, एक बुजुर्ग झल्ला कर बोले ''पहले ई बच्चा सब को पिलाकर भजो, ससुरे खरगोश की पैदाईश हैं''। सभी बच्चे शरबत पीकर अपनी शैतानियों का अंत कर चुके थे। अब बड़े बुजुर्गो को पिलाने की बारी थी। सदानंद काका एक ही गिलास मे बस कर दिये, इसपर नरोत्तम काका बोले ''का हो सदानंद, तुम सच मे बूढ़ा गए हो''। का सोचेगा बचवा सब इतना मेहनत से ई सब किए और कौनो ढंग का पीने वाला ही नहीं है''। इसपर सदानंद काका बोले ''अरे ससुरा हम तो तुम्हारे लिए फिक्रमंद है कि कही तुमको न कम पड़ जाये''।
इसपर हम बोले अरे काका बहुते है, पीजिए न जेतना पीजिएगा। नरोत्तम काका फिर बोलते है '' अरे बचवा काहे मारने पर लगे हो सदानंद को, अब उसकी अतड़ी मे एतना दम नही रहा। बाकी के लोग शरबत पी रहे थे लेकिन सदानंद काका व नरोत्तम काका का वाकयुद्ध थम नही रहा था। अंततः दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि तुम जेतना पीएगा हम उससे एक गिलास ज्यादा पीएंगे। जो जीतेगा वो सामने वाले को 500 रुपया भी देगा। सभी लोगो कि नजर दोनों काका की हो रही प्रतियोगीता पर टिक गयी।
नरोत्तम काका कुटिल मुस्कान के साथ शरबत पिये जा रहे थे और सदानंद काका चिड़चिड़े होकर। अंततः नरोत्तम काका के 15 गिलास शरबत का जवाब, सदानंद काका ने जैसे तैसे 16 गिलास पीकर दिया। लोगो का मानना था कि नरोत्तम काका ने यह सब जानबूझकर किया व जानबूझकर हारे भी। लेकिन शर्त के अनुसार नरोत्तम काका ने सदानंद काका को 500 रुपये दें दिए। बाद में यह भी पता चला कि सदानंद काका की तबियत बिगड़ गयी, और उन्हें 2000 डॉक्टर को देने पड़े।
500 के चलते 1500 का नुकसान सदानंद काका ने कैसे झेला यह तो वही जानते है। लेकिन जो समा उस दिन उनकी वजह से वहां बंध गया था, उसकी यादें आज भी वहां उपस्थित सभी लोगो के जहन में ताजा है। आज भी जब बच्चे सदानन्द काका को उनकी उस शर्त के लिए चिढ़ाते है, तो वे खीझकर अपनी भड़ास पूरी ताकत के साथ निकालते है। वहां उपस्थित सभी लोग जोर जोर से हंसने लगते है, और सदानंद काका के जले पर नमक छिड़क कर उन्हें शांत करने की कोशिश में जुट जाते है।
त्यौहार व उससे जुड़ी वैध परम्परा ही हमारे समाज की एकजुटता का आधार है। त्यौहार बस नाम के रूप में ही जीवित न रह जाये, इसलिए उन परंपराओं का निर्वहन ही समाज में फैल रही वैमनस्यता को दूर करने का एकमात्र माध्यम है।
आप सभी को अक्षय तृतीया की ढेर सारी शुभकामनाएं।
-आशीष झा