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Wednesday, May 6, 2020

माँ एवं पुत्र का निश्छल प्रेम (लघुकथा)



रविवार का दिन था। सुबह के छह ही बजे थे, की अलार्म की घंटी रोजाना की तरह "ट्रीन ट्रीन ट्रीन" करने लगी। अरुण के पापा रोजाना 7 बजे फैक्ट्री के लिए निकल जाते है, इसलिए अलार्म 6 बजे का रोजाना के लिए सेट कर रखा था। अलार्म की धारदार आवाज से भी अरुण के पापा नही उठे शायद उन्हें संडे का आभास हो गया था, लेकिन अरुण की मम्मी की नींद बिगड़ गयी थी। "कितनी बार कहा है इन्हें की संडे को अलार्म मत लगाया करो, एक यही दिन तो मिलता है थोड़ी ज्यादा देर सोने के लिए, लेकिन नही..हम तो दुश्मन है ना इनके"

पति को कोसती हुई अरुण की मम्मी उठी और घर के कामों में लग गयी। दिमाग पूरा सनका हुआ था। किचन के बर्तन की आवाज़ अंदर बैडरूम तक जा रही थी। पति महोदय की आंख भले ही बंद थी, लेकिन कर्णपटल पूरी तरह खुले हुए थे..जिसपर आगामी महाभारत के संखनाद की गूंज साफ-साफ सुनाई दे रही थी।


अब पति महोदय और बच्चे भी उठ चुके थे। पति जहाँ झुकी झुकी नजरों से अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो रहे थे, वहीं बच्चों को यह आभास हो गया था कि आज फिर शीतयुद्ध छिड़ा हुआ है। छोटे भाई राजू ने बड़े भाई अरुण से पूछा "क्या लगता है भैया क्या कारण रहा होगा इस शीतयुद्ध का"। अरुण काफी समझदार था "उसने कहा तुम ज्यादा मजे मत लो वरना इस शीतयुद्ध को लठ्ठयुद्ध में बदलते देर नही लगेगी। जाओ चुपचाप चाय लाओं हमारे लिए। राजू ने कहा हम नही जा रहे है, हमें अभी और जीना है।


पूरे घर में सन्नाटा छाया हुआ था। अचानक अरुण की आवाज़ गूंजती है "मम्मी चाय और परांठे दे दो, हमें पढ़ने बैठना है"। मम्मी ने कहा " हां हां क्यूं नही अभी लायी बेटा, तुम्हें और चाहिए ही क्या बस मुफ्त की रोटी तोड़ते रहो और बैठे रहो। 24 के तो हो ही गए हो, कुछ सालों बाद अपने बच्चों के साथ भी पढ़ते ही रहना। यहाँ सुबह से सर दर्द के मारे फटा जा रहा और इन्हें फरमाईश पूरी चाहिए। "काम के न काज के दुश्मन अनाज के"।


माँ के इस कर्कश बाण ने सन्नाटे को चीरते हुए अरुण के दिल को फिर से घायल कर दिया था। अरुण ने बदले में कुछ नही बोला और अपने कमरे से बाहर निकलते हुए घर से बाहर चला गया। माँ आवाज़ देती रही "अरुण सुन बेटा सुन.. अरुण। लेकिन कोई फायदा नही था। माँ के चेहरे पर आत्मग्लानि साफ साफ नजर आ रही थी। "ये क्या कह दिया मैंने सुबह-सुबह, कहाँ चला गया मेरा बच्चा"। ऐसा कहते ही माँ सर पकड़ कर रोने लगी।


अरुण के पापा भी वही मौजूद थे। "तुम्हें भी न अपनी जुबान पर लगाम नही है, मेरा सारा गुस्सा सुबह सुबह उस बेचारे अरुण पर उतार दिया। अब चिंता मत करो, आ जायेगा। बच्चों को भला कभी ऐसा बोलते है, वह अपने बाप की रोटी खा रहा है, मुफ्त की नही। उठो अब चाय दे दो, वो आ जायेगा..कहीं नही जाएगा।


इतने में अरुण बाहर का दरवाजा खोलते हुए अंदर आता है। माँ भागी-भागी जाती है.. "कहाँ चला गया था तू, माँ की बात का भी कोई इतना बुरा मानता है क्या"। अरुण ने जेब में हाथ डाला और कहा ये लो सरदर्द की दवा, तुम्ही ने तो कहा था कि सर दर्द के मारे फटा जा रहा है तो यही लेने गया था।


माँ ने अरुण को गले से लगा लिया। माँ की आंखों से आंसुओ की धारा अब और तेज़ बहने लगी थी। मां ने हाथ पकड़ कर अरुण को बैठाया और कहा रुक मैं तेरे लिए परांठे बना कर लाती हूँ। अरुण ने कहा..माँ मुफ्त के परांठे खिलाओगी, या फिर मुझे पैसे देने होंगे। माँ ने कहा "मारूंगी न एक थप्पड़"..और पूरा घर खुलकर हँसने लगा।



- आशीष झा

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