जिले में अंडर 18 क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन किया जा रहा था। हमारे स्कूल को भी उस आयोजन में हिस्सा लेने का न्योता दिया गया। उस वक़्त हम स्कूल में क्रिकेट से ज्यादा फुटबाल खेला करते थे। हमारे खेल प्रशिक्षक (पी.टी. मास्टर) सत्येंद्र जैन सर स्टेट की फुटबाल टीम में खेल चुके थे। ऐसा नही है की बाकी खेलों की महत्ता उनकी नजरों में बिल्कुल भी नही थी...क्रिकेट, बैडमिंटन, हॉकी व कबड्डी जैसे अन्य खेलों का प्रशिक्षण भी वह दिया करते थे..लेकिन उनका मानना था की फुटबाल अन्य खेलों की अपेक्षा एक बेहतर ऊर्जावान खेल है।
अब चूंकि बात क्रिकेट टूर्नामेंट की थी और स्कूल की इज्ज़त सवाल का था...इसलिए प्रतियोगिता में हिस्सा लेना अनिवार्य था। आधिकारिक तौर पर हमारी स्कूल की कोई क्रिकेट टीम नही थी, इसलिए सबसे जरूरी यह था की कुछ बेहतर खिलाड़ियों का चयन कर एक क्रिकेट टीम का निर्माण करना। सर ने एक ट्रायल शुरू की, और किसी तरह 12 खिलाड़ियो की हमारी एक क्रिकेट टीम बनाई। मुझे उस टीम का कप्तान चुना गया।
हमारी टीम सबसे नई व सबसे अनुभवहीन थी। हमें आज से पहले किसी टूर्नामेंट का तजुर्बा नही था। हालांकि कुछ खिलाड़ी बेहतर जरूर थे, लेकिन बहुत सारे लड़के ओंजू-पोंजू थे। हमारे सर, मैं और एक दो अच्छा क्रिकेट खेलने वाले टूर्नामेंट को लेकर उत्साहित व सजग जरूर थे...बाकी किसी को कुछ लेना-देना नहीं था। आश्चर्य व हताशा की बात तो यह थी की हम वैसी टीम लेकर क्रिकेट खेलने जा रहे थे, जिसके बहुत से खिलाड़ियों को उस खेल के नियम-कायदे तक पता नहीं थे।
दूसरी तरफ बड़े-बड़े स्कूलों की वह पेशेवर टीमें थी, जो न जाने कितने ही टूर्नामेंट खेल व जीत चुकी थी। किसी टीम में सभी खिलाड़ियों के पास व्यक्तिगत किट थे तो, तो कोई टीम पूरी तरह से प्रायोजित थी। लेकिन सर का कहना था की जीत होंसलों व इरादों से मुकम्मल होती है। सर के मार्गदर्शन व अनुशासन ने पूरे टूर्नामेंट के दौरान एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया, और हम मैच जीतते गए। कब मैच जीतते-जीतते हम टूर्नामेंट जीत गए, यह बात हमें भी पता न चली।
आज सोचता हूँ तो कितना फिल्मी लगता है सबकुछ..बिल्कुल "चक दे इंडिया" मूवी की तरह। लेकिन आज से ठीक 37 साल पहले भी तो ऐसा कारनामा हो चुका है। कपिल देव व उनकी टीम को भी कहां पता था की जिस रेस में हम भाग लेने जा रहे है, उसके सिकंदर भी हम ही बनने वाले है। टूर्नामेंट के अपने पहले मैच में ही हमने वेस्टइंडीज को हरा दिया। हममें से कोई इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था।
उसके बाद सब कुछ अपने आप सही होता गया जैसे हम किसी योजना से चल रहे हों। हालांकि ईमानदारी से कहूं तो, हमारी योजना नाममात्र ही थी, जिसमें कैप्टेन को थैंक्स बोलना और छोटी-छोटी टीम मीटिंग करना शामिल था। अब चूंकि कपिल देव का हाथ अंग्रेजी में थोड़ा तंग था, हिंदी भी बहुत अच्छी नहीं थी तो वो अपनी बात बस इतना कह कर खत्म करते थे, ‘शेरों जीत लो!’ यह बिल्कुल आम बात थी लेकिन इसकी वजह से हमारे ऊपर कोई दबाव नहीं रहा। इसका यह असर था कि हम टूर्नामेंट की शुरुआत से फ्री होकर खेले और आखिर में ट्रॉफी लेकर घर लौटे।
हम 2011 में भी 28 साल बाद फिर से वर्ल्ड कप जीते। धोनी का विनिंग सिक्स आज भी क्रिकेट के इतिहास में मेरे लिए सबसे स्मरणीय है, लेकिन पहली बड़ी उपलब्धि का संतोष व सुख शायद अपने आप में अमूल्य होता है। वह भी तब जब सफलता की गुंजाईश नाममात्र की होती है। भले ही 83 के जीत का मैं साक्षी न रहा हूँ, लेकिन किस्से व कहानियों द्वारा कपिल देव व उनकी सेना की उपलब्धि आज भी मेरे ज़हन में नामुमकिन को मुमकिन करने जैसा है।
- आशीष झा
(इस लेख का कुछ अंश क्रिकेटर संदीप पाटिल के व्यक्तव्य को आधार बनाकर लिखा गया )
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अब चूंकि बात क्रिकेट टूर्नामेंट की थी और स्कूल की इज्ज़त सवाल का था...इसलिए प्रतियोगिता में हिस्सा लेना अनिवार्य था। आधिकारिक तौर पर हमारी स्कूल की कोई क्रिकेट टीम नही थी, इसलिए सबसे जरूरी यह था की कुछ बेहतर खिलाड़ियों का चयन कर एक क्रिकेट टीम का निर्माण करना। सर ने एक ट्रायल शुरू की, और किसी तरह 12 खिलाड़ियो की हमारी एक क्रिकेट टीम बनाई। मुझे उस टीम का कप्तान चुना गया।
हमारी टीम सबसे नई व सबसे अनुभवहीन थी। हमें आज से पहले किसी टूर्नामेंट का तजुर्बा नही था। हालांकि कुछ खिलाड़ी बेहतर जरूर थे, लेकिन बहुत सारे लड़के ओंजू-पोंजू थे। हमारे सर, मैं और एक दो अच्छा क्रिकेट खेलने वाले टूर्नामेंट को लेकर उत्साहित व सजग जरूर थे...बाकी किसी को कुछ लेना-देना नहीं था। आश्चर्य व हताशा की बात तो यह थी की हम वैसी टीम लेकर क्रिकेट खेलने जा रहे थे, जिसके बहुत से खिलाड़ियों को उस खेल के नियम-कायदे तक पता नहीं थे।
दूसरी तरफ बड़े-बड़े स्कूलों की वह पेशेवर टीमें थी, जो न जाने कितने ही टूर्नामेंट खेल व जीत चुकी थी। किसी टीम में सभी खिलाड़ियों के पास व्यक्तिगत किट थे तो, तो कोई टीम पूरी तरह से प्रायोजित थी। लेकिन सर का कहना था की जीत होंसलों व इरादों से मुकम्मल होती है। सर के मार्गदर्शन व अनुशासन ने पूरे टूर्नामेंट के दौरान एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया, और हम मैच जीतते गए। कब मैच जीतते-जीतते हम टूर्नामेंट जीत गए, यह बात हमें भी पता न चली।
आज सोचता हूँ तो कितना फिल्मी लगता है सबकुछ..बिल्कुल "चक दे इंडिया" मूवी की तरह। लेकिन आज से ठीक 37 साल पहले भी तो ऐसा कारनामा हो चुका है। कपिल देव व उनकी टीम को भी कहां पता था की जिस रेस में हम भाग लेने जा रहे है, उसके सिकंदर भी हम ही बनने वाले है। टूर्नामेंट के अपने पहले मैच में ही हमने वेस्टइंडीज को हरा दिया। हममें से कोई इस बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था।
उसके बाद सब कुछ अपने आप सही होता गया जैसे हम किसी योजना से चल रहे हों। हालांकि ईमानदारी से कहूं तो, हमारी योजना नाममात्र ही थी, जिसमें कैप्टेन को थैंक्स बोलना और छोटी-छोटी टीम मीटिंग करना शामिल था। अब चूंकि कपिल देव का हाथ अंग्रेजी में थोड़ा तंग था, हिंदी भी बहुत अच्छी नहीं थी तो वो अपनी बात बस इतना कह कर खत्म करते थे, ‘शेरों जीत लो!’ यह बिल्कुल आम बात थी लेकिन इसकी वजह से हमारे ऊपर कोई दबाव नहीं रहा। इसका यह असर था कि हम टूर्नामेंट की शुरुआत से फ्री होकर खेले और आखिर में ट्रॉफी लेकर घर लौटे।
हम 2011 में भी 28 साल बाद फिर से वर्ल्ड कप जीते। धोनी का विनिंग सिक्स आज भी क्रिकेट के इतिहास में मेरे लिए सबसे स्मरणीय है, लेकिन पहली बड़ी उपलब्धि का संतोष व सुख शायद अपने आप में अमूल्य होता है। वह भी तब जब सफलता की गुंजाईश नाममात्र की होती है। भले ही 83 के जीत का मैं साक्षी न रहा हूँ, लेकिन किस्से व कहानियों द्वारा कपिल देव व उनकी सेना की उपलब्धि आज भी मेरे ज़हन में नामुमकिन को मुमकिन करने जैसा है।
- आशीष झा
(इस लेख का कुछ अंश क्रिकेटर संदीप पाटिल के व्यक्तव्य को आधार बनाकर लिखा गया )
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